वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आपसी रिश्ते-नाते निभाना मज़बूरी या ज़रूरत ?
''स्वर्ण रेणुकाएँ''
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” रिश्ते-नातों में गायब हो रही मिठास “
आधुनिक जीवन का अगर कोई सर्वाधिक उपयुक्त पर्याय है तो वो है आत्मकेन्द्रित होता मनुष्य । महानगर तो महानगर ग्रामीण समाज भी इस आत्मकेन्द्रित होती भावना से अब अछूता नहीं रहा । अगर देखा जाए तो मानव सभ्यता की सारी विकास कथा उसके इर्द-गिर्द के रिश्तों-नातों एवं समाज से हीं विनिर्मित हुई है । यदि मनुष्य अपने सुख-दुःख, अपने जीने-मरने को मात्र अपने तक सीमित किये रहता तो ना परिवार बनता ना समाज, ना राष्ट्र, और ना हीं देश । संग और साथ रिश्ते और नाते मनुष्य की मजबूरी नहीं ज़रूरत है । आज के अन्तराष्ट्रीय युग-संसार में जहाँ एक ओर जीवन और परिवेश संपन्न और विस्तृत हो गया है वहीँ हमारा व्यव्हार अत्यंत सीमित और एकांगी हो चला है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और रिश्ते-नाते निभाना सामाजिकता के अनिवार्य नियम का हिस्सा हैं । मनुष्यता को जीवित रखना है तो रिश्ते-नातों को जीवित रखना हीं होगा । किन्तु आज दिनप्रतिदिन बढ़ते तलाक के किस्से, विलुप्तप्राय होते संयुक्त परिवार और बेतरह बढ़ते वृद्धाश्रम एवं झूलाघर यही बयान करते हैं कि आधुनिक समाज में रिश्ते नाते शनैः शनैः अपनी अहमियत खोते जा रहे हैं । वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से पोषित भारतीय संस्कृति आज अपने हीं परिवारों,
रिश्तेदारों से कटता जा रहा है ।
रिश्तों के प्रकार :-
1) जन्मजात रिश्ते – ये उस तरह के रिश्ते हैं जो हमें जन्म के साथ हीं मिलते हैं । इन पर हमारा कोई वश नहीं होता जैसे, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, नाना-नानी इत्यादि । ये खून से बंधे रिश्ते होते हैं । कई बार इस तरह के रिश्तों में दूरी या कड़वाहट भी आ जाती है, बावजूद इसके ये रिश्ते टूटते नहीं ।
आज का विश्व कुछ सदियों पहले वाला एकाकी और एकांगी विश्व नहीं रहा । वैश्वीकरण के इस ज़माने को अन्तराष्ट्रीय युग-संसार कहना ज्यादा उचित होगा । जीवन और परिवेश संपन्न और विस्तृत हो गया है । अधिकांश व्यक्ति शिक्षित हैं और जीविकोपार्जन हेतु घर-परिवार-समाज से दूर रहना सामान्य माना जाने लगा है । लम्बी दूरियों एवं अवकाश के अभाव में ऐसे लोगों के पास सारे के सारे सगे-सम्बन्धियों से मिलना-जुलना मुमकिन नहीं हो पाता । ऐसे में रिश्ते फ़ोन या ईमेल के सहारे बस जैसे-तैसे चलते रहते हैं ।
2) हमारी पसंद के रिश्ते – ये वैसे रिश्ते हैं जो हम स्वयं अपनी मर्ज़ी से बनाते हैं । इसमें ना तो किसी प्रकार की मजबूरी होती है और ना हीं ये जबरन थोपे हुए होते हैं । जैसे – दोस्त, प्रेमी/प्रेमिका, प्रेम विवाह करने वाले पति/पत्नी । अधिकतर ये रिश्ते जितनी जल्दी बनते हैं, उतनी हीं जल्दी ख़त्म भी हो जाते हैं । कई बार अपनी मर्ज़ी से बनाए गए ये रिश्ते आजीवन भी चलते हैं फ़िर भी इनकी मिठास ख़त्म नहीं होती, तो कई बार बीच सफ़र में हीं इनमें दरारें पड़ जाती हैं । यह स्थिति बेहद तकलीफ़देह होती है । चूँकि ये रिश्ते हम स्वयं की मर्ज़ी से बनाते हैं इसलिए इससे मिलने वाली कड़वाहटों को भी हमें अकेले हीं झेलना पड़ता है ।
3) सामाजिक रीति-रिवाज़ों से जुड़े हुए रिश्ते – ये माता-पिता अथवा परिवार, समाज द्वारा तय किये गए रिश्ते होते हैं जैसे – पति/पत्नी, ननद/देवर/भाभी/सास-ससुर इत्यादि के रिश्ते ।
इनमें से पति पत्नी के रिश्ते में सबसे अधिक चुनौतियाँ होती हैं । आजकल अधिकांशतः पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं । घर की जिम्मेदारी और ऑफिस का कार्यभार मिश्रित होकर तनाव के स्तर को उच्च बनाए रखता है । छोटी-छोटी बात पर एक-दूसरे के ऊपर बिफ़र पड़ना, क्रोध और चिड़चिड़ापन आम बातें हैं । अगर परिवार में कोई सुलह-समझौता, बीच-बचाव करवाने वाला ना हुआ तो ब्रेकअप और तलाक़ भी सामान्य-सी बात है । अगर किसी मजबूरीवश संबंध आगे चलता भी है तो “इमोशनल ब्रेकअप” तो तय सी बात है ।
इसके आलावा आजकल कुछ नए प्रकार के रिश्ते भी बन रहे हैं …
4) आभासी संसार के रिश्ते – इन्टरनेट पर बनने वाले ये रिश्ते काफ़ी दिलचस्प होते हैं । दो सर्वथा अनजान व्यक्तियों के बीच कभी-कभी परिचित रिश्तों से भी अधिक नजदीकियाँ और मिठास आ जाती है ।
5) कार्यक्षेत्र के रिश्ते – कार्यालय में साथ-साथ काम करते हुए कभी-कभार दो लोगों के बीच बेहद आत्मीय रिश्ते बन जाते हैं । स्थानान्तरण के साथ-साथ कभी तो ये रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं, कभी-कभार लम्बे समय तक साथ चलते हैं ।
खैर रिश्ता चाहे कोई भी हो वह टिकता केवल परस्पर आदर, स्नेह, विश्वास, आत्मीयता एवं प्रतिबद्धता की सतह पर हीं है । रिश्तों में अगर स्नेह-प्रेम की ऊष्मा और आदर-विश्वास की संजीवनी हो तो इसके रेशमी धागे में इतनी ताकत होती है कि यह दो विपरीत विचारधारा, दो विपरीत परिवेश वाले व्यक्तियों को भी अटूट मधुर बंधन में बाँध देती है । किन्तु आज के हाईटेक ज़माने की रफ़्तार इतनी तेज़ है कि व्यक्ति के पास रिश्तों की मिठास को महसूस करने, रिश्तों को ख़ूबसूरती के साथ जीने का वक़्त हीं नहीं है ।
आधुनिक समय की दौड़ती-भागती ज़िंदगी के बीच रिश्तों को समझने, बातचीत करने का अवसर हीं नहीं मिलता । ऐसे में रिश्तों का संतुलन बिगड़ जाता है और ग़लतफ़हमियाँ, क्रोध और फ्रस्ट्रेशन सर उठाने लगते हैं । सम्बन्धों में इस तरह की नकारात्मक भावनाओं का उत्पन्न होना इस बात का संकेत है कि रिश्तों के इस पड़ाव को आपके ध्यान, आपके केयर की ज़रूरत है । जो व्यक्ति यहाँ चेत गया उसके संबंध बच जाते हैं, अन्यथा सम्बन्धों को ध्वस्त होने में समय नहीं लगता ।
आजकल की प्रॉब्लम ये है कि लोग प्यार लेना तो चाहते हैं लेकिन देना नहीं चाहते । दूसरों से उम्मीद तो करते हैं पर स्वयं उम्मीदों पर खरा उतरना ज़रूरी नहीं समझते । स्वयं तो अपेक्षाएँ रखते हैं पर दूसरा भी कुछ अपेक्षाएँ रखे यह उन्हें मंज़ूर नहीं । वैसे रिश्ता चाहे जन्म का हो या हमारी पसंद का ज़रूरत से ज्यादा अपेक्षाओं से भी रिश्तों का दम घुट जाता है ।
बदलते युग के साथ रिश्तों की परिभाषा चाहे बदल जाए, पर रिश्तों की अहमियत आज भी उतनी हीं है । यह ना कभी ख़त्म हुई थी, ना कभी होगी । यह एक कटु सत्य है कि आजकल अधिकांश व्यक्तियों में सहनशीलता का घोर अभाव हो चला है । ऐसे में झुकना, सहना, समझौता करना, रिश्तों को जीवित रखने के लिए ख़ुशियों का परित्याग करना ये सब बीती बातें हो चुकीं हैं । रिश्ते नाते जिनके बगैर मनुष्य अधूरा है आज अपना महत्व और मिठास खोते जा रहे हैं तो ऐसी परिस्थिति में मुझे तो यही लगता है कि आज के परिपेक्ष्य में रिश्ते-नाते निभाना मात्र एक मजबूरी बन के रह गयी है ।
आधुनिक जीवन का अगर कोई सर्वाधिक उपयुक्त पर्याय है तो वो है आत्मकेन्द्रित होता मनुष्य । महानगर तो महानगर ग्रामीण समाज भी इस आत्मकेन्द्रित होती भावना से अब अछूता नहीं रहा । अगर देखा जाए तो मानव सभ्यता की सारी विकास कथा उसके इर्द-गिर्द के रिश्तों-नातों एवं समाज से हीं विनिर्मित हुई है । यदि मनुष्य अपने सुख-दुःख, अपने जीने-मरने को मात्र अपने तक सीमित किये रहता तो ना परिवार बनता ना समाज, ना राष्ट्र, और ना हीं देश । संग और साथ रिश्ते और नाते मनुष्य की मजबूरी नहीं ज़रूरत है । आज के अन्तराष्ट्रीय युग-संसार में जहाँ एक ओर जीवन और परिवेश संपन्न और विस्तृत हो गया है वहीँ हमारा व्यव्हार अत्यंत सीमित और एकांगी हो चला है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और रिश्ते-नाते निभाना सामाजिकता के अनिवार्य नियम का हिस्सा हैं । मनुष्यता को जीवित रखना है तो रिश्ते-नातों को जीवित रखना हीं होगा । किन्तु आज दिनप्रतिदिन बढ़ते तलाक के किस्से, विलुप्तप्राय होते संयुक्त परिवार और बेतरह बढ़ते वृद्धाश्रम एवं झूलाघर यही बयान करते हैं कि आधुनिक समाज में रिश्ते नाते शनैः शनैः अपनी अहमियत खोते जा रहे हैं । वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से पोषित भारतीय संस्कृति आज अपने हीं परिवारों, रिश्तेदारों से कटता जा रहा है ।
रिश्तों के प्रकार :-
1) जन्मजात रिश्ते – ये उस तरह के रिश्ते हैं जो हमें जन्म के साथ हीं मिलते हैं । इन पर हमारा कोई वश नहीं होता जैसे, माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-ताऊ, नाना-नानी इत्यादि । ये खून से बंधे रिश्ते होते हैं । कई बार इस तरह के रिश्तों में दूरी या कड़वाहट भी आ जाती है, बावजूद इसके ये रिश्ते टूटते नहीं ।
आज का विश्व कुछ सदियों पहले वाला एकाकी और एकांगी विश्व नहीं रहा । वैश्वीकरण के इस ज़माने को अन्तराष्ट्रीय युग-संसार कहना ज्यादा उचित होगा । जीवन और परिवेश संपन्न और विस्तृत हो गया है । अधिकांश व्यक्ति शिक्षित हैं और जीविकोपार्जन हेतु घर-परिवार-समाज से दूर रहना सामान्य माना जाने लगा है । लम्बी दूरियों एवं अवकाश के अभाव में ऐसे लोगों के पास सारे के सारे सगे-सम्बन्धियों से मिलना-जुलना मुमकिन नहीं हो पाता । ऐसे में रिश्ते फ़ोन या ईमेल के सहारे बस जैसे-तैसे चलते रहते हैं ।
2) हमारी पसंद के रिश्ते – ये वैसे रिश्ते हैं जो हम स्वयं अपनी मर्ज़ी से बनाते हैं । इसमें ना तो किसी प्रकार की मजबूरी होती है और ना हीं ये जबरन थोपे हुए होते हैं । जैसे – दोस्त, प्रेमी/प्रेमिका, प्रेम विवाह करने वाले पति/पत्नी । अधिकतर ये रिश्ते जितनी जल्दी बनते हैं, उतनी हीं जल्दी ख़त्म भी हो जाते हैं । कई बार अपनी मर्ज़ी से बनाए गए ये रिश्ते आजीवन भी चलते हैं फ़िर भी इनकी मिठास ख़त्म नहीं होती, तो कई बार बीच सफ़र में हीं इनमें दरारें पड़ जाती हैं । यह स्थिति बेहद तकलीफ़देह होती है । चूँकि ये रिश्ते हम स्वयं की मर्ज़ी से बनाते हैं इसलिए इससे मिलने वाली कड़वाहटों को भी हमें अकेले हीं झेलना पड़ता है ।
3) सामाजिक रीति-रिवाज़ों से जुड़े हुए रिश्ते – ये माता-पिता अथवा परिवार, समाज द्वारा तय किये गए रिश्ते होते हैं जैसे – पति/पत्नी, ननद/देवर/भाभी/सास-ससुर इत्यादि के रिश्ते । इनमें से पति पत्नी के रिश्ते में सबसे अधिक चुनौतियाँ होती हैं । आजकल अधिकांशतः पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं । घर की जिम्मेदारी और ऑफिस का कार्यभार मिश्रित होकर तनाव के स्तर को उच्च बनाए रखता है । छोटी-छोटी बात पर एक-दूसरे के ऊपर बिफ़र पड़ना, क्रोध और चिड़चिड़ापन आम बातें हैं । अगर परिवार में कोई सुलह-समझौता, बीच-बचाव करवाने वाला ना हुआ तो ब्रेकअप और तलाक़ भी सामान्य-सी बात है । अगर किसी मजबूरीवश संबंध आगे चलता भी है तो “इमोशनल ब्रेकअप” तो तय सी बात है ।
इसके आलावा आजकल कुछ नए प्रकार के रिश्ते भी बन रहे हैं …
4) आभासी संसार के रिश्ते – इन्टरनेट पर बनने वाले ये रिश्ते काफ़ी दिलचस्प होते हैं । दो सर्वथा अनजान व्यक्तियों के बीच कभी-कभी परिचित रिश्तों से भी अधिक नजदीकियाँ और मिठास आ जाती है ।
5) कार्यक्षेत्र के रिश्ते – कार्यालय में साथ-साथ काम करते हुए कभी-कभार दो लोगों के बीच बेहद आत्मीय रिश्ते बन जाते हैं । स्थानान्तरण के साथ-साथ कभी तो ये रिश्ते ख़त्म हो जाते हैं, कभी-कभार लम्बे समय तक साथ चलते हैं ।
खैर रिश्ता चाहे कोई भी हो वह टिकता केवल परस्पर आदर, स्नेह, विश्वास, आत्मीयता एवं प्रतिबद्धता की सतह पर हीं है । रिश्तों में अगर स्नेह-प्रेम की ऊष्मा और आदर-विश्वास की संजीवनी हो तो इसके रेशमी धागे में इतनी ताकत होती है कि यह दो विपरीत विचारधारा, दो विपरीत परिवेश वाले व्यक्तियों को भी अटूट मधुर बंधन में बाँध देती है । किन्तु आज के हाईटेक ज़माने की रफ़्तार इतनी तेज़ है कि व्यक्ति के पास रिश्तों की मिठास को महसूस करने, रिश्तों को ख़ूबसूरती के साथ जीने का वक़्त हीं नहीं है । आधुनिक समय की दौड़ती-भागती ज़िंदगी के बीच रिश्तों को समझने, बातचीत करने का अवसर हीं नहीं मिलता । ऐसे में रिश्तों का संतुलन बिगड़ जाता है और ग़लतफ़हमियाँ, क्रोध और फ्रस्ट्रेशन सर उठाने लगते हैं । सम्बन्धों में इस तरह की नकारात्मक भावनाओं का उत्पन्न होना इस बात का संकेत है कि रिश्तों के इस पड़ाव को आपके ध्यान, आपके केयर की ज़रूरत है । जो व्यक्ति यहाँ चेत गया उसके संबंध बच जाते हैं, अन्यथा सम्बन्धों को ध्वस्त होने में समय नहीं लगता । आजकल की प्रॉब्लम ये है कि लोग प्यार लेना तो चाहते हैं लेकिन देना नहीं चाहते । दूसरों से उम्मीद तो करते हैं पर स्वयं उम्मीदों पर खरा उतरना ज़रूरी नहीं समझते । स्वयं तो अपेक्षाएँ रखते हैं पर दूसरा भी कुछ अपेक्षाएँ रखे यह उन्हें मंज़ूर नहीं । वैसे रिश्ता चाहे जन्म का हो या हमारी पसंद का ज़रूरत से ज्यादा अपेक्षाओं से भी रिश्तों का दम घुट जाता है ।
बदलते युग के साथ रिश्तों की परिभाषा चाहे बदल जाए, पर रिश्तों की अहमियत आज भी उतनी हीं है । यह ना कभी ख़त्म हुई थी, ना कभी होगी । यह एक कटु सत्य है कि आजकल अधिकांश व्यक्तियों में सहनशीलता का घोर अभाव हो चला है । ऐसे में झुकना, सहना, समझौता करना, रिश्तों को जीवित रखने के लिए ख़ुशियों का परित्याग करना ये सब बीती बातें हो चुकीं हैं । रिश्ते नाते जिनके बगैर मनुष्य अधूरा है आज अपना महत्व और मिठास खोते जा रहे हैं तो ऐसी परिस्थिति में मुझे तो यही लगता है कि आज के परिपेक्ष्य में रिश्ते-नाते निभाना मात्र एक मजबूरी बन के रह गयी है ।
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